Saturday, September 21, 2013

एक मुट्ठी धूप

मैं एक मुट्ठी धूप लाने चला था
हथेलियों तक तो वो आई भी थी
सोचा था शायद संभाल ही लूँगा
बंद मुट्ठी में आसमान की तरह
लेकिन मुट्ठी बंद होते ही सारी धूप
अचानक जाने कब हवा हो गई थी
शायद उसे बंद रहना पसंद न था
या उसका हक़दार हर शख्स था
अकेले मेरी हसरत क्यों पूरी होती
अब मैं समझ गया हूँ अच्छी तरह
देने वाले पर लेने वाले का भरोसा हो
लेकिन फिर भी हुक्म नहीं चलता
पहले मुझे ये सब मालूम नहीं था
अब मैं धूप के पास चला जाता हूँ
अपने हिस्से की धूप सेंक लेता हूँ

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