मैं एक मुट्ठी धूप लाने चला था
हथेलियों तक तो वो आई भी थी
सोचा था शायद संभाल ही लूँगा
बंद मुट्ठी में आसमान की तरह
लेकिन मुट्ठी बंद होते ही सारी धूप
अचानक जाने कब हवा हो गई थी
शायद उसे बंद रहना पसंद न था
या उसका हक़दार हर शख्स था
अकेले मेरी हसरत क्यों पूरी होती
अब मैं समझ गया हूँ अच्छी तरह
देने वाले पर लेने वाले का भरोसा हो
लेकिन फिर भी हुक्म नहीं चलता
पहले मुझे ये सब मालूम नहीं था
अब मैं धूप के पास चला जाता हूँ
अपने हिस्से की धूप सेंक लेता हूँ
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