Sunday, April 17, 2016

कभी कभार ही

रिश्ता बनने लगा था
बड़ी हसरतों से उनसे
ख़ूब लग रहा था
शायद उनको भी
फिर ये दरारें क्यों
कोताही नहीं की
हमने शायद कभी
फिर कहाँ से आ गई
ऐसी नागवारी!
उनके मन में क्या है
नहीं है मालूम हमको
लेकिन दिखता जो है
वो नफरत से कम नहीं
बनाए थे हमने
मोहब्बत के आशियाने
क्या इसलिए हमने ?
हमारी तो बस रही
एकतरफा मोहब्बत
बेमुरब्बत हम न थे
उनके ही हिस्से रहे हैं
शिकवे-शिकायत भी
कुछ यूँ रहा सफर अपना
कोई कुछ भी कहता रहे
अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
कहीं गहराई में दफन है
वो मोहब्बत की दास्ताँ
जिसका पता तक
अब कोई नहीं जानता
बस ज़ख्म याद कराते हैं
कभी कभार ही
जाने अनजाने
कोई नासूर सा एहसास!

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