Thursday, April 14, 2016

एक-एक पीढ़ी जुदा

अब कहाँ वो दिन के उजाले दीखते हैं
दिन में तो अब अंधरों के साये छाये हैं
अंधेरों में ही ये दुनियाँ चलती रहती है
रात के उजाले यहाँ अंधेरों से लगते हैं
मिलकर बोझ उठाना कौन चाहता है
सभी लेकिन अपनी-अपनी कहते हैं
यहाँ उम्मीदों के दायरे सब के अलग
कल भी वही थे आज भी बस वही हैं
कुछ पल की मेहमान पीढ़ियां यहाँ
लोग एक-एक पीढ़ी जुदा समझते है
किसी और की बात पर कोई न समझे
अपनी बात यहाँ सब खूब समझते हैं

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