Sunday, December 9, 2012

बेसुरा

कभी कभी तो कुछ भी कहने को यहाँ
पूरी आज़ादी से जीने का जी करता है
सुर के कद्रदानों को बेअसर करने को
आज फिर बेसुरा होने को जी करता है
दिल के हाथों शायद कुछ भी न मिला
आज बग़ावत करने को दिल करता है
आज नगमों से अदावत होती है मुझे
आज कुछ न कहने को जी करता है
देखकर ये ज़माने के रस्म ओ रिवाज़
सारे वादों से मुक़रने को जी करता है

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