Tuesday, January 22, 2013

यथासंभव

कुछ कहने करने से पूर्व
किंकर्तव्यविमूढ़ हुए थे
उसके वक़्त और नसीब
देख आंसू बहने लगे थे
इसी को हम लोग क्या
प्रगति का रूप कहते थे
समाज का यह रूप देख
मन मलिन हो चला था
मेरे मन में बसे मैल को
धोना बहुत दूर की बात
आंसू भिगो तक न सके
मेरे मन के ये ज़ज्बात
फिर भी संकल्प तो था
कहेंगे हम अपने बात
अपनी और से हम भी
करते खुद को आश्वस्त
यथासंभव करेंगे प्रयास
चाहे जो भी होंगे हालात

No comments: