मन न जाने क्या क्या दिखलाना चाहता मुझे
सपने क्या बस ख़याल से ठिठक उठता हूँ मैं
आज भी सपनों की दुनियाँ खूब भाती है मुझे
हक़ीक़त के नाम से ही सिहर सा उठता हूँ मैं
जानता हूँ कि सपने आख़िर सपने ही होते हैं
कुछ पल को सही यहाँ डूब महक उठता हूँ मैं
फिर भी हक़ीक़त से गुरेज़ कब तक करूँगा
मत दिखाओ ये सपने मुझे बहक़ उठता हूँ मैं
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