आज कह लेने दो गीतों को मेरे ऐसा कुछ
अब भी ज़िन्दा हूँ मुझे बस ये यकीं हो जाए
चुप रहा बरसों मैं यहाँ किसी न किसी डर से
सोचा न कभी कब डर ये मुझे भी खा जाये
अब मैं बोलूँगा बिना किसी से भी डर कर
दामन में लगा हरेक दाग़ मेरा यूँ धुल जाये
मैंने देखे हैं कई वो ज़ुल्मो सितम औरों पर
जाने क्यों न करी इनकी खिलाफत मैंने
खाता हूँ क़सम अब ये ख़ता न होगी मुझसे
मेरा हर नगमा नया इंसाफ़ के नाम हो जाये
ज़ुल्म सहना भी गुनाह है ज़ालिम की तरह
है ये भी ज़ुल्म जब नज़रंदाज़ कोई कर जाये
ये ज़हां है नहीं मिल्कियत बस चंद लोगों की
सबको हक है कि उन्हें भी इन्सां समझा जाये
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