Saturday, February 9, 2013

अपना कलाम

वो नगमे वो एहसास क्या खूब थे सब
अनज़ाने में भी कभी गुनगुनाता हूँ मैं
कितना मिलता था सुकूँ उस शायरी से
याद वो गुज़रा ज़माना किये जाता हूँ मैं
अब तो गीतों में बस फिकरे कसे जाते हैं
एक मीठे गीत की ख़ातिर मरा जाता हूँ मैं
आज भी आस है मुझे हसीं महफ़िल की
उसी की ख़ातिर गीतों में दिल लगाता हूँ मैं
शोर है मौसिकी में यहाँ अब बहुत ज्यादा
सिर्फ़ अपना कलाम धीरे से गुनुनाता हूँ मैं

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