वही नगमे वही महफ़िल रोज़ सजती है
साक़ी के काम सी होने लगी ज़िन्दगी है
फ़र्ज़ निभाती हर तरफ़ सी ये कहानी है
कुछ अपनी है तो कुछ फ़क़त बन्दगी है
ग़म भी ख़ुशियाँ भी बेहिसाब मिलती हैं
आख़िर तो सिफ़र सी लगती ज़िन्दगी है
जीते हैं हरेक से बस इतनी निशानी है
और कुछ नहीं बस रस्म-ए-अदायगी है
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