Sunday, December 28, 2014

लाशों के ढेर से अलग

अनिश्चय व अनिर्णय
एकमात्र विकल्प हैं
इंसानों की खाल में
घूम रहे भेड़िये हैं यहाँ
आतंक के चलते हुए
बदहाल है सुरक्षा सर्वत्र
मारे जाते हैं लोग यहाँ
रोज़ जानवरों की भाँति
कभी कहीं तो कहीं और
कोई डरे हुए मेमने से
कातर नज़र से देखते
छोटे-छोटे बच्चे यहाँ
किंकर्तव्यविमूढ़ हैं
भाग्य के सहारे चलते
जीवन के समस्त रंग
आखित कब तक चलेंगे
दुस्साहस का विकल्प
सदैव साहस नहीं शायद
लेकिन सब लोग मिल
सक्रिय पहल कर सकते हैं
शांति व् सद्भाव के निमित्त
सबके भविष्य की खातिर
कोई तो निकल सकता है
मध्यमार्ग ही सही
लाशों के ढेर से अलग !

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