Sunday, February 13, 2011

परिकल्पना

वो बिसरी सी बातों एवं यादें मेरी
आज भी कभी दिलासा दे जाती हैं
जो मेरी परिकल्पना की उड़ान थे
सच न सही तदपि परछाई तो हैं
वो सब अनूठे जीवन प्रसंग मेरे
जो मेरे जीवन का अभिन्न अंग हैं
गाहे बगाहे सही पर अक्सर ही
मुझे वो मंज़र अब भी बुलाते हैं
कितनी ज़ल्द वक़्त निक़ल गया
वो इस सब का आभास करते हैं
बस छोटी सी इस लम्बी यात्रा में
मेरे हमसफ़र बन साथ निभाते हैं

1 comment:

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

बहुत सुन्दर रचना .. उम्दा..