सच की तलाश में चला था मैं
न मालूम ये क्या जुनून था
हारता गया था मैं हर ज़गह
सच का तो कहीं पता न था
सच के नाम हर तरह लोग
अपनी शेखियां बघार रहे थे
न मालूम कैसे कैसे वे लोग
झूठ में सच के पंख लगाते थे
सच का कोई पता नहीं था
झूठ सरे आम हर ओर था
कई प्रकार की चाशनियों में
मिलाकर परोसा जा रहा था
सच की कोई कीमत न थी
झूठ काफी महंगे भाव था
सच कुछ कड़वा ज़रूर था
पर अब भी हर तरफ ज़रूर
उम्मीद का दामन थामे बैठा था
1 comment:
लिया बहुत बहुत ज्यादा
दिया बहुत बहुत कम
सच का माथा फोड़ दिया
तर्कों के हाथ उखाड़ डाले
लिया बहुत बहुत ज्यादा
दिया बहुत बहुत कम
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