Thursday, February 17, 2011

देदीप्यमान

रात घुप्प अँधेरी है आज
चाँदनी भी तो नहीं है
ये तो अमावस की रात है
कौन फैला रहा है फिर
ये उजाला मेरे आस पास
कहीं ये मेरा भ्रम तो नहीं
कोई मधुर स्वप्न तो नहीं
लेकिन मैं तो जगा हुआ हूँ
ये मध्यम सी रौशनी मुझे
कौतुहल में डाल रही है
ये संगीत की ध्वनि कैसी
तारों के प्रकाश तो कभी
इतने करीब न देखे थे
कोई मायाजाल तो नहीं?
सोचता हूँ कि ये शायद
मेरे अन्दर का प्रकाश होगा
तो क्या मैं झाँक रहा हूँ
देदीप्यमान होती हुई
अपने ही अन्दर की ऊर्जा?

4 comments:

Udan Tashtari said...

गहन अभिव्यक्ति!

Atul Shrivastava said...

अच्‍छी सोच। अच्‍छी प्रस्‍तुति।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर भाव ...अपने अंदर की उर्जा से यदि रोशनी मिल रही हो तो सब उजला ही लगेगा ...

Kailash Sharma said...

बहुत गहन सोच से परिपूर्ण सुन्दर अभिव्यक्ति..