कभी इन्हीं दो हाथों से उसने
थाम लिया था मेरे हाथों को
मैं निश्चय ही नहीं कर पाया था
उपेक्षा समझी थी वो उस दिन
मैंने इसे अपनी कमजोरी माना
फिर भी महफूज़ रखा दोनों ने
उन यादों और विचित्र भावों को
हमारी समझ तब भी गज़ब थी
आज इतने समय बाद देखे मैंने
उसके काँपते और कमज़ोर हाथ
कुछ भी थामने की ताक़त न थी
समय ने भी उसका हाथ न थामा
पर उसका सब कुछ छीन लिया था
मैं आज भी निश्चय नहीं कर पाया
आज भी वो मुझ पर हँस पड़ी
मैंने फिर कमज़ोर पाया खुद को!
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