Monday, February 21, 2011

किंकर्तव्यविमूढ़

उस दिन हमेशा को मैंने
जाने की ठान ही ली थी
फैसले की घड़ी आ गई थी
किसी की आवाज़ ने मगर
मेरे क़दमों को थाम लिया था
एक बार फिर से आज भी
किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी
उसके भोले वचनों के साथ
उसके गाल पर टपकते हुए
मोती से आंसू आज फिर
मेरे अश्रुओं पर भारी पड़े थे
मुझे अब उसी की बहाली में
अपने संघर्ष और कर्तव्य की
पराकाष्ठा दिखाई दे रही थी

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