Tuesday, June 28, 2011

धारावाहिक

वो आते चले गए ज़िन्दगी में मेरी
जैसे बिन बुलाये ख्वाबों की तरह
मैं भूलता चला गया साथ ही साथ
सुबह के बिसरे से ख्वाबों की तरह
फिर भी दिमाग़ के किसी कोने में
वो बस गए थे अजनबी की तरह
इरादा कोई न उनका था न मेरा
आज़ाद विचरते पंछियों की तरह
गाहे बगाहे उनके आने की याद
आती रही हमें नेपथ्य की तरह
कभी लगा नाटक अभी जारी है
एक लम्बे धारावाहिक की तरह

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