सूरज रोज़ अपनी दिन भर की रौशनी बिखराने के बाद
चाँद को सौंप अपनी रौशनी अपना मंतव्य दिखलाता है
चाँद अपने इस उधार की चांदनी पर भी यूँ इतराता है
उसे मालूम है कि फिर रात होगी और चांदनी छिटकेगी
बहुत दूर के तारों की रौशनी हम तक पहुँचती कम सही
वे टिमटिमाकर हमारे संग संग मुस्कुराते से लगते हैं
हम रोज़ कुछ न कुछ सभी से ले लेने की कोशिश में हैं
जाने कितने लोग फिर भी हमें बेहतर बनाने में जुटे हैं
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