Wednesday, September 19, 2012

छत्रछाया

हँसते खेलते कब बड़े हो गए
कल की ही बात प्रतीत होना
ज़िम्मेदारी का अहसास भी था
उनकी छत्रछाया का ताना बाना
कभी लगा नहीं था एक दिन
पड़ेगा हमें ये भी दिन देखना
एक खालीपन अब हमेशा को
कितना मुश्किल भूल पाना
पिता के संसार से जाते ही
ढह गया था मेरा आशियाना
एक रेत के घरोंदे की तरह
कई दशकों से जो था पहचाना
पर अब भी मौजूद है सब
यादों में जो है आना जाना
बड़ा रहस्यमय है ये संसार
असम्भव है यहाँ थाह पाना
एक एक कर औरों का तो
फिर अपना भी चले जाना
सच है यहाँ की यही रीत है
कि बस लगा है आना जाना

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