Monday, December 5, 2011

दरख़्त

उसको न मालूम क्या हुआ
अजीब सी बातें करने लगा
बोला मुझसे वो दरख़्त भले
जो किसी ने लगाये थे कभी
उनकी हिफाज़त भी ख़ूब की
वो तो कोई फलदार भी नहीं हैं
पतझड़ से आँगन तक गन्दा है
पतझड़ की भी आलोचना नहीं
कर्तव्य समझ बस झाड़ू फेरा
बदले में उनने सिर्फ छाया दी
मैंने संतान की हिफाज़त की
पेड़ से कहीं ज्यादा की थी
बदले में बस क्षणिक ख़ुशी थी
ज़रूरत के वक़्त वहां मेरे लिए
कहीं कोई भी जगह नहीं थी
दरख्त की अपनी जगह तो थी

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