Saturday, December 3, 2011

अन्तिम कविता

जानता था कविता कितनी नापसंद हमें वो
फिर भी सुनाने का मौक़ा नहीं चूकता था वो
मौक़ा कितना संजीदा था ये जानता था वो
अपने आखिरी वक़्त में मुस्कुरा रहा था वो
जाते जाते भी एक कविता सुना गया था वो
हमको तो जीते ही मार डालना चाहता था वो
और ये आख़िरी ज़ुल्म भी ढाता रहा था वो
अपनी अन्तिम साँस तक सुनाता रहा था वो
सोचा था मर के तो शायद छोड़ेगा पीछा वो
बार हर बार कविता बन याद आता रहा था वो

:)))))))

3 comments:

अनुपमा पाठक said...

कविता नहीं रूकती कभी... जीवन भी कविता सा निश्छल हो तो अंतहीन बहता रहता है!

Udaya said...

:)

Roshi said...

जियो तो ऐसे जियो की हर लम्हा एक याद नहीं यादगार बन जाए :)