तनाव से गायब नूर चेहरे का
बहुत कुछ बताने सा लगता है
हँसती खेलती इस ज़िन्दगी में
मानो एक ग्रहण लग जाता है
जीवन असाध्य दुष्कर सा बन
जीवन पर ही क्रोध आ जाता है
लेकिन सामंजस्य में आते ही
फिर चेहरे में नूर आ जाता है
कारण अकारण बढ़ते जाते हैं
शिकायतों का दौर आ जाता है
आरोप के सामने आते ही बस
प्रत्यारोप को ही मन करता है
एक झूठे दर्प के चलते मानो
उभय पक्ष घमासान चाहता है
फिर समझदारी के दौर से बस
चेहरे का नूर लौट ही आता है
बातों बातों में अपनी बुद्धि पर
हँस लेने का मन भी करता है
हर बार की तरह अगली बार
न दोहराने का मन करता है
लेकिन फिर कोई छोटा प्रसंग
विवेक पर भारी पड़ जाता है
अमूमन फिर वही सामंजस्य से
फिर चेहरे का नूर लौट आता है
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