Monday, April 14, 2014

बहुत देर

ईमान जब डोलने लगते हैं
यक़ीन ख़ुद कमज़ोर होते हैं
आदमी आईने से डरते हैं
लेकिन जानते हैं फिर भी
आखिर कब तक झुठलाएंगे
अपने अंदर की आवाज़ को
उम्र जब ढलने लगती है
लोगों को नए सवाल सताते हैं
लोग अंदर ही अपने आप से
चिढ़ने और कुढ़ने लगते हैं
अपने ही विवेक पर फिर
बात बात में रोने लगते हैं
मज़बूरन आईना देख कर
सच की अनुभूति होती है
फिर ईमानदारी याद आती है
मगर तब बहुत देर हो जाती है

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