यक़ीन ख़ुद कमज़ोर होते हैं
आदमी आईने से डरते हैं
लेकिन जानते हैं फिर भी
आखिर कब तक झुठलाएंगे
अपने अंदर की आवाज़ को
उम्र जब ढलने लगती है
लोगों को नए सवाल सताते हैं
लोग अंदर ही अपने आप से
चिढ़ने और कुढ़ने लगते हैं
अपने ही विवेक पर फिर
बात बात में रोने लगते हैं
मज़बूरन आईना देख कर
सच की अनुभूति होती है
फिर ईमानदारी याद आती है
मगर तब बहुत देर हो जाती है
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