Monday, April 7, 2014

चुनाव का व्यापार

जन-भावनाओं के सौदागर
करते हैं यहाँ व्यापार
जन-भावनाओं का
तरह तरह के स्वाँग दिखा
लोक-लुभावन नारों को
सियासी तराज़ू में तौलकर
बड़े सस्ते बेच देते हैं
मीठी परत और वर्क़ को
चुनावी चाशनी में डुबो
और लोग भी तो
आ जाते हैं मीठी बातों में
फिर रख देते हैं गिरवी
अपने अधिकार सभी
उन्हीं सौदागरों के पास
हर बार हर चुनाव में
फिर पाँच साल तक
सौदागरों के ग्राहक बन
ख़ुद को कोसते रहते हैं
एक निरंतर चक्र सा
क्यों न होगा फिर भला
चुनाव का व्यापार

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