Tuesday, April 29, 2014

सवाल-जबाब

बहुत मुलाक़ातें हुईं
लेकिन उस एक
मुलाक़ात के क्या कहने
जब हम हम थे तुम तुम थे
तुम्हारे अपने सपने थे
हमारे भी अपने थे
हमारे अपने अपने सवाल थे
जबाब किसी को नहीं मिले थे
न लब खुले थे न गुफ्तगू हुई
खामोशियों को अपनी ज़ुबाँ थी
कुछ तुम समझ रहे थे
कुछ हम समझ रहे थे
बग़ैर रास्ते के बियाबान में
हम सफर कर रहे थे
आखिर रास्ते के बिना भी
हमने चल पड़ने का
सोच लिया था
अब सवाल नहीं थे
जबाब खुद समझ लिए थे
कुछ जबाब बिन सवालों के हैं
कुछ सवालों के जबाब नहीं होते
ये हम दोनों समझ रहे थे

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