Friday, April 11, 2014

मोहब्बत के अफ़साने

उफ़ क्या मज़ा था
इंतज़ार में उन दिनों
सोचा था बातें होंगी
मोहब्बत का आलम होगा
मुलाक़ात भी क्या हुई
मानो अल्फ़ाज़ गुम थे
न हम हम थे न तुम तुम थे
चन्द मुलकातों में फिर
लफ़्ज़ों ने साथ निभाया
दिलों ने मोहब्बत का गीत गाया
और आखिरकार
मोहब्बत अफ़साना बन गई
हम हम हो गए थे
और तुम तुम रह गए थे
फिर नदी के दो किनारों से
हम दोनों रह गए
लेकिन ग़म नहीं कोई
आज भी तन्हाइयों में हम
मोहब्बत के गीत गाते हैं
मोहब्बत के अफ़साने को
अपने अपने तरीके से
कभी कभी दोहराते हैं

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