न तुम कुछ कह रहे थे
न मैंने कोई शब्द कहा
न पास कोई आवाज़ थी
फिर कहाँ से हो गई
एक नई ग़लतफ़हमी
वो दिन भी तो ऐसे ही थे
जब हम समझ जाते थे
बिना किसी आवाज़ के
प्यार के वो सब बोल
जब विश्वास था
जो भी कहा होगा
या अनकहा भी हो
कल्याणकारी ही था
उभयपक्ष के लिए
कोई दरार दिखती नहीं
फिर कहाँ मनभेद हुआ
ये तुम भी सोच रहे थे
और मैं भी सोच रहा था
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