Sunday, April 27, 2014

विहग-सुर

विहग-सुर सा मीठा बोल रहे थे वो
जाने कौन उड़ान की सोच रहे थे वो
खद्योत का प्रकाश पर्याप्त मेरे लिए
न जाने क्यों चाँद की सोच रहे थे वो
केवल गीत सुरीला भाता है मुझको
क्यों वाद्य यंत्र सब खोज रहे थे वो
मेरी निजता मेरी संपत्ति भान उन्हें
जाने क्यों सब और तलाशते थे वो
कही छुपा था दावानल सा अंदर मेरे
जाने क्यों अंदर तक मेरे जाते थे वो
सपना अपना बस सपना ही था मेरा
क्यों उसमें सत्य व अर्थ खोजते वो
है ज्ञान मुझे प्रतिपल पल पल का
क्यों इसको मेरा अज्ञान मानते वो
स्वीकार मुझे हर सत्य सनातन था
क्यों ये भी मेरा प्रतिकार मानते वो

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