Monday, May 23, 2011

आकृतियाँ

न मालूम सब क्यों उलट था
मेरी अपेक्षाओं के प्रतिरूप
ज़िन्दगी परीक्षा ले रही थी
चाँदनी तब मुझे चुभने लगी
चाँद कुछ उष्ण लगने लगा था
भला हो बादलों का जिन्होंने
चाँद और चाँदनी दोनों को ही
दोनों का मार्ग अवरुद्ध कर
अपने भीतर छुपा लिया था
बनती बिगड़ती आकृतियों को
अँधेरे ने छुपा ही लिया था
फिर कल सुबह पौ फटते ही
सूर्योदय की प्रतीक्षा में मुझे
सवेरा भी दृष्टिगोचर होने लगा

1 comment:

अनुभूति said...

आशावादी भावनाओं का सुनहरा सूर्योदय ...बहुत खूब पन्त जी...