और मेरी मासूमियत
तुम्हारे शब्दजाल में
शहर की जगमगाहट में
जाने कहाँ खो गई
मेरी संवेदनशीलता
बिलकुल तुम्हारी तरह
जीवन की चकाचौंध में
अब न वो जुगनू हैं
न चाँदनी के रंग हैं
नदियों की कल-कल
झरनों के सुर
पक्षियों के कलरव
सब गुम से हो गए हैं
तुम्हारे शहर में आकर
बस शोर ही शोर है
तुम्हारे शहर में
और मेरे अंदर
पलायन की ग्लानि है
प्रकृति की गोद में बसे
मेरे छोटे से गाँव से
पीड़ा है अपने लोगों से
अपनी मासूमियत से
बिछुड़ जाने की
एक अकथनीय सत्य की
न चाह कर भी इसी
चक्रव्यूह में फँसने की
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