Sunday, July 6, 2014

चक्रव्यूह

खो गया हूँ यहाँ मैं
और मेरी मासूमियत
तुम्हारे शब्दजाल में
शहर की जगमगाहट में
जाने कहाँ खो गई
मेरी संवेदनशीलता
बिलकुल तुम्हारी तरह
जीवन की चकाचौंध में
अब न वो जुगनू हैं
न चाँदनी के रंग हैं
नदियों की कल-कल
झरनों के सुर
पक्षियों के कलरव
सब गुम से हो गए हैं
तुम्हारे शहर में आकर
बस शोर ही शोर है
तुम्हारे शहर में
और मेरे अंदर
पलायन की ग्लानि है
प्रकृति की गोद में बसे
मेरे छोटे से गाँव से
पीड़ा है अपने लोगों से
अपनी मासूमियत से
बिछुड़ जाने की
एक अकथनीय सत्य की
न चाह कर भी इसी
चक्रव्यूह में फँसने की


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