रस्म-ओ-रिवाज़ ये निभाता रहा हूँ मैं
ज़माना इम्तहान लेगा हर तरफ से ही
अपने ही इम्तहान से घबरा रहा हूँ मैं
तुम्हारे सच में शरीक़ होने की खातिर
अपने अपने सच को झुठला रहा हूँ मैं
ठेस न लग जाए किसी के इस झूठ को
इस पाप का भागी बनता जा रहा हूँ मैं
कुछ भी कह लो मेरा भी अभिमान है
औरों की खातिर ही जिए जा रहा हूँ मैं
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