Saturday, June 28, 2014

अन्तर्मन तक

जीवन की बगिया की सुंदरता पर
फिर कुछ जुमले कहते जाओ तुम
फूलों के हों बिखरे रंग कई जिधर
कोई बाग़ मुझे ऐसा दिखलाओ तुम
बादल की ग़रज़ नहीं है कोई भाती
कुछ बूँद सही सावन बरसाओ तुम
बारिश की बूँदों में भीगी-भीगी हो
यूँ मदमस्त छटा दिखलाओ तुम
बस लगें झूमने ज्यों दोनों हम-तुम
साथी गीत तो कोई ऐसा गाओ तुम
तन-मन में होगी सुखद कोई झंकार
आज राग कोई ऐसा छेड़ जाओ तुम
कह दो उन रूठी खुशियों से तुम मेरी
बस अन्तर्मन तक छाते जाओ तुम

1 comment:

सुनीता said...

प्रसंशनीय कविता.