वही अंदाज़ वही मिज़ाज़ नहीं बदला यहाँ कुछ भी
बड़े ज़ालिम हैं मुल्क़ में और बहुत मज़लूम भी बाक़ी
ज़माना चूम लता है क़दम सुर्खरू लोगों के
जानना नहीं चाहता कितने सर कटे मज़लूमों के
सुर्खरू जानते गुर हैं जानकार भी अनजान बनने के
कोई मज़लूम तक नहीं सुनता दुखड़े कभी मज़लूमों के
सितमगर ढूँढ़ लेते हैं सितम के हर तरीकों को
उनके हैं रास्ते अपने उन्हीं के वास्ते घर कानूनों के
उन्हीं के चलते हैं चलते यहाँ घर भी वक़ीलों के
बरसती दौलतें उनकी छुपातीं हर राज़ हैं उनके
उमड़े जाते हैं हुज़ूम नज़र भर देखने को लोगों के
उन्हीं की है जम्हूरियत उन्हीं की सुनते हैं सब लोग
वो जो कह दें न शक कोई मिलेगा क्या यूँ शक कर के
जब माने उनको ही हैं हक़ीम वो सब बन्दे हैं उनके
कभी वो दिन भी आएगा नहीं होंगे ये सब उनके
धर्म, कानून सबके आगे होंगे बराबर सब जुर्म उनके
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