Monday, June 23, 2014

अंततः

जब 'मैं' प्रबल था
सब कुछ अपना था
संवेदनायें जीवित थीं
अभिलाषा हावी रही थी
अपनों व परिजनों के
अनुभव एवं व्यवहार
रुचिपूर्ण से शुरू होकर
साधन बनते गए
क्रमशः विरक्ति के
माया-मोह, तेरा-मेरा
ह्रासमान होते गए
पराकाष्ठा तक पहुँच कर
वैराग्य के भाव भी आये
अंतर समझ न सके
विरक्ति और वैराग्य में
अंततः यही रास आया
संत-प्रवृत्ति शिरोधार्य है
कहीं, किसी भी रूप में


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