Monday, June 23, 2014

विकास के कुतर्क देकर!

अब और नहीं है
मेरे वश में
तुम्हारी सुरक्षा करना
मैं हज़ारों साल से
अडिग खड़ा रहा हूँ
आंधी-पानी और
ज़लज़लों के बीच भी
नैसर्गिक सुंदरता भी
मैं तुम्हें दिखाता रहा
तुम्हारे लिये ही
अपना शरीर काट-काट
नदियों को मार्ग देता रहा
और तुम!
मेरी ही अस्मिता को
नष्ट करते गए
बारूद की खेती से
बड़ी-बड़ी सुरंगों से
सड़कों के जाल से
निरंतर दोहन करते हुए
वनस्पति और खनिज का
क्यों मेरे विनाश पर तुले हो
बस विकास के कुतर्क देकर!
अब मैं खड़ा रहूँ भी कैसे
तुम्हीं बता दो मुझ को
अपने विनाश की राह तो
तुमने स्वयं चुन कर ली है
मेरे विकास को चुन कर
वो भी असंतुलित विकास
किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ यहाँ
मैं भी तो बस

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