Monday, June 23, 2014

जिया सो जीवन

मानो किसी कल्पनालोक में हैं
आकाश छूने की आकांक्षा में
जीवन के नए-नए खेल जारी हैं
एक निरंतर द्वन्द के चलते
ये पंचतत्व का भौतिक शरीर
आकाश में ही समा जायेगा
कल तुम्हारा तो कल हमारा
अपनी-अपनी बारी आते ही
शून्य से शुरू होकर फिर
समां जायेगा शून्य में ही
कभी-कभी मन करता है
एक अट्टहास के साथ हँसूं
हमारी अपनी प्रवृत्ति पर
प्रकृति व इसके नियमों पर
वो भी सब जान बूझकर
सत्य से एकदम उलट
समय बिताने मात्र को
ये भी तो एक ध्रुव सत्य है
समय बिताना ही होता है
सब छलावा मात्र ही सही
जो भी जिया वही जीवन है

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