जितना चाहे कर लो
फूँककर बस हवा से
तुम्हारा ये कृत्रिम सा
चिर परिचित शंखनाद
अब नहीं फैलने वाला
ये भ्रामक संवाद और
विषाक्त शब्दजाल भी
मेरा विवेक मेरे साथ है
तुम्हारे वाक्पटु असत्य
और नीर क्षीर का अंतर
अब वह बताता है मुझे
मेरी ही भाँति और भी
अब भले बुरे का भेद
जानते व पहचानते हैं
हमें भरमाना छोड़
तुम भी यथासम्भव
सत्य का ही साथ दो
अपने निहित स्वार्थवश
हमारा इस्तेमाल तज
हमारे दुःख-सुख के
तुम साझेदार बनो
No comments:
Post a Comment