अजनबी तो हम भी थे कभी अब हम सब जानते हैं
इस शहर के सभी रास्तों को अब ख़ूब पहचानते हैं
वही शहर वही रास्ते वही सफ़र है वही मुसाफ़िर हैं
फ़िर ये अंदाज़ सब के अलग अलग से होते क्यों हैं
बहुत से लोग ज़माने से बेपरवाह नींद में ही रहते हैं
फ़िर हम किसकी फ़िक्र में यहाँ चैन से सोते नहीं हैं
मुक़ाम और मुल्क़ की परवाह ये लोग करते नहीं हैं
ऐसा भी नहीं ये तो बस अपनी चुप्पी लगाये बैठे हैं
उन्हें हमसे कोई उम्मीद हो या न हो नहीं जानते हैं
बस हम फ़िर भी इनसे उम्मीद इधर लगाये बैठे हैं
No comments:
Post a Comment